पाकिस्तान से भारत को डरने की आवश्यकता न कभी थी, न है, न होगी। एक अस्थिर, ग़रीब ,और पाँच गुना छोटा देश हमारा क्या बिगाड़ सकता है? अगर भारत एक ७ फुट ऊँचा भीमकाय पहलवान है तो पाकिस्तान सवा फ़ुट का सर्कसी बौना! इस तथ्य में अगर कोई संदेह कभी रहा भी हो तो वह १९६५ और १९७१ के युद्धों के बाद ,जिनमें पाकिस्तान की करारी हार हुई थी , पूरी तरह समाप्त हो गया था। यहाँ तक कि तब की भारतीय प्रधानमंत्री ने असाधारण शौर्य और आत्मविश्वास का प्रदर्शन करते हुए पाकिस्तान का विभाजन करवाकर उसे पहले से आधा कर दिया था।
१९७१: युद्ध में पराजय के बाद पाकिस्तानी जनरल नियाज़ी भारतीय कमांडर जनरल अरोड़ा के सम्मुख आत्मसमर्पण के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करते हुए। इसके साथ ही पाकिस्तान के विभाजन पर मोहर लग गई थी।
एक ज़माने में उनकी क्रिकेट और हॉकी की टीमें इन खेलों की भारतीय टीमों से बेहतर थीं और वे स्क्वाश के विश्व चैंपियन देते थे।पर दर्जनों दूसरे खेलों, और जीवन के क्षेत्रों, में हम उनसे इतना आगे रहे हैं कि तुलना भी सम्भव नहीं। अब तो क्रिकेट और हॉकी में भी हम कहीं आगे हो गए हैं।
यह और बात है कि वहाँ के राजनीतिज्ञ वहाँ की जनता को भारत का हव्वा दिखाते रहते हैं और साथ ही हेकड़ी भी मारते हैं कि वह भारत से नहीं डरते । पर यह सब उनके अंतर्मन में बसी असुरक्षा का प्रतिबिंब मात्र है। एक जाना माना और घिसा पीटा राजनीतिक पैंतरा भी है : जनता को किसी का डर दिखाते रहो ताकि वे उसी में उलझे रहें और कुशासन पर प्रश्नचिन्ह न लगाएं।
हाँ चीन की बात पूरी तरह अलग है। वह एक बहुत बड़ा ख़तरा हमेशा था और अब भी है।बल्कि लगातार बढ़ता हुआ ख़तरा है।उस ख़तरे से – और उसके जैसे दूसरे शक्तिशाली देशों के ख़तरे –से निपटने का एक ही रास्ता है : हम विकास और सैन्य-शक्ति में उनसे दो कदम आगे रहें। और ऎसा तभी सम्भव है जब हम सब एक जुट होकर चहुमुखी विकास के लक्ष्य को साधने में लग जाएं। सब से बड़ी प्राथमिकता है कि
चीन असाधारण दर से विकसित हुआ है
विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास किया जाए ( जिसमें फ़िलहाल हम चीन से काफी पीछे हैं) । हमेँ अपने पर्यावरण-सम्बन्धी दृष्टिकोण को भी बदलना होगा। वह इसलिए कि हमारा क्षेत्रफ़ल चीन के क्षेत्रफ़ल से एक तिहाई है और अगर हम unproductive और फ़ैशनेबल विकास में अपने पर्यावरण को ख़र्च करते रहे तो आते समय में भारी मुश्किल में फंस सकते हैं। संक्षेप में कहें तो चीन से ख़तरा बिल्कुल है पर उससे निपटाने के लिए पुरुषार्थ की आवश्यकता है, जुमलेबाज़ी और नारों से काम नहीं चलेगा।
देश-विदेश में चीनी नागरिकों या चीनी मूल के विदेशों में बसे लोगों से मेरा सम्पर्क होता रहा है। जो गुण लगभग हर चीनी में प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं वह हैं असाधारण कार्य-क्षमता, अनुशासन, और सुव्यवस्था। हम भारतीय बुद्धिमत्ता और कुशलता में चीनियों के बराबर हैं। शायद बेहतर हैं। पर बाक़ी तीन गुण चीनियों को हर सम्भव ऊँचाई तक ले जा सकते हैं। इन गुणों के करण चीन हर देश के लिए खतरा है।
उद्योगशीलता , अनुशासन और सुव्यवस्था हर चीनी कामगार को परिभाषित करते हैं
साथ ही सारे विश्व पर अपना प्रभुत्व स्थापित करने की जैसी घोर लालसा चीन के कार्यकलापों में झलकती है उससे अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश भी घबराए रहते हैं।
एक परिप्रेक्ष और भी है। भारत आज भले ही चीन से पीछे हो पर अधिकांश विकासोन्मुख देशों से कहीं आगे है। पर जब 220 वर्षोँ की अनवरत लूट के बाद अंग्रेजों ने १९४७ में भारत छोड़ा तब भारत की अर्थव्यवस्था जर्जर हो चुकी थी। अंतरराष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में भारत की जो छवि प्रेक्षित होती थी वह थी एक दुबले , कमज़ोर, अधनंगे, भिकारी की जो एक कटोरा आगे कर भीख मांगता हुआ दिखाया जाता था। अंग्रेज़ों द्वारा लाये गए बंगाल के काल में ३० लाख से अधिक भारतवासी मारे गए थे और भारत इतना अन्न नहीं उगा पता था कि अपना पेट भर सके।
उस दुर्दशा से भारत उभरा ही नहीं , अन्न-उत्पादन के क्षेत्र में आत्मनिर्भर हुआ , विज्ञान और प्रौद्योगिकी में विकासोन्मुख हुआ, परमाणु -शक्ति बना, अंतरिक्ष में पहुंचा। भारत ने आई आई टी जैसे शिक्षा संस्थान स्थापित किये जिनकी विश्व भर में प्रशंसा हुई। यह सब कैसे सम्भव हुआ? यह सब सम्भव हुआ उन दूरदर्शी राष्ट्रनिर्माताओं के अथक प्रयासों के कारण जिन्होंने भारत को १९४७ की दयनीय स्थिति से उठाकर सन १९९५ आते-आते विश्व की एक प्रमुख शक्ति बना दिया। जो शिक्षा-संस्थान, प्रयोगशालाएं, अनुसन्धान केंद्र , और दूसरे संस्थान/परियोजनाएं उन्हींने स्थापित कीं उन्हीं का सुफल हम भोग रहे हैं। आवश्यकता है कि उन संस्थानों को औऱ सुदृढ़ और विकसित किया जाये न कि अवरुद्ध।
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